Sunday, April 12, 2009

कुछ भी लिखो ! कोई देखने वाला नहीं

पत्रकारिता का हाल इन दिनों वास्तव में बहुत बुरा है। जिस पत्रकार को जो सब्जेक्ट नहीं है,उसे उसी सब्जेक्ट में लिखना पड़ रहा है। अब,जिस विषय के बारे में कुछ पता नहीं है,उसके बारे में लिखना पड़े तो अल्ल बल्ल लिख ही जाता है। एक नमूना देखिए-



हिन्दुस्तान के 11 अप्रैल के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित इस खबर में जिन पत्रकार महोदय ने खबर लिखी, उन्हें शायद पता नहीं था कि मधुर भंडारकर की 'ट्रैफिक सिगनल' फिल्म को आए एक साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है। फिल्म सुपरहिट भले न हो,चर्चित तो थी ही। फिल्म को कई अवार्ड भी मिले। जहां तक मुझे याद है कि नेशनल अवार्ड भी मिला। लेकिन,इसमें सिर्फ गलती इस एक फिल्म को लेकर नहीं है। भंडारकर की फिल्म 'आन-मेन एट वर्क' को आए भी कई साल बीत चुके हैं। अक्षय कुमार,सुनील शेट्टी,शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत यह फिल्म भंडारकर की व्यवसायिक फिल्मों की तरफ मुड़ने की विफल कोशिश थी। लेकिन,हिन्दुस्तान अखबार में आन को अलग और मेन एट वर्क को अलग फिल्म बताया है।

मजे की बात है कि मधुर के बारे में वैसे भी मशहूर है कि वो एक बार में सिर्फ एक फिल्म ही करते हैं। लेकिन,अखबार ने बता दिया कि चार-पाच फिल्में निर्माणाधीन हैं। हां,इस गड़बड़झाले से मधुर खुश हो सकते हैं!

Saturday, April 11, 2009

नयी दुनिया ने ढूंढा राजनाथ सिंह का डुप्लीकेट !

11 अप्रैल का नयी दुनिया दिल्ली संस्करण देखिए। आपको पता चल जाएगा कि डॉ वीरेन्द्र नाथ के रुप में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का डुप्लीकेट भी मौजूद है। लीजिए आप भी नयी दुनिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के साथ इस गलती को देखिए।


हां,जिस सज्जन ने यह पेज बनाया और वो राजनाथ सिंह को नहीं पहचानते-ये है तो हैरान करने वाली बात। लेकिन,अगर ऐसा है तो राजनाथ सिंह के लिए ये खतरे की घंटी है...। भइया,जब अखबार वाले ही नहीं पहचान रहे तो क्षेत्र की जनता क्या खाक पहचानेगी।

Tuesday, April 7, 2009

याद आया जनरैल से अपना छोटा सा नाता

दोपहर दो बजे किसी ने मुझसे कहा कि गृहमंत्री चिदंबरम को किसी पत्रकार ने जूता मार दिया तो अचानक मुंह से निकल पड़ा-कौन था पागल पत्रकार? लेकिन,दोपहर बाद टेलीविजन स्क्रीन पर उभार लेती तस्वीरों पर अचानक नज़रें गढ़ी तो दिल धक कर गया। ये तो जनरैल सिंह हैं !

जनरैल सिंह को कई लोग मुझसे कहीं ज्यादा जानते होंगे। लेकिन,जनरैल से मेरा छोटा सा नाता रहा है। टीचर-स्टूडेंट का। 1994 में यूपी बोर्ड से इंटर पास करने के बाद दिल्ली आकर बीए(पास) में एडमिशन लिया तो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र जैसे विषय पहली क्लासों में सिर के ऊपर से निकल गए। लेकिन, तब जनरैल ने घर आकर राजनीति शास्त्र की चंद क्लास लीं। जनरैल पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स हैं। उन दिनों जनरैल पब्लिक एशिया नाम के एक अखबार में थे,और अपने पुराने स्कूटर पर पहाड़गंज स्थित मोतिया खान के मेरे घर आते थे। सिर्फ मेरे चाचा से अपने संबंधों के चलते।

इन चंद क्लास और उसके बाद की चंद मुलाकातों में जनरैल की छवि हमेशा एक बेहद सुशील और हंसमुख इंसान की रही। मेरे लिए मददगार की भी। उस वक्त,जब जनरैल सिंह को अदद बढ़िया नौकरी की तलाश थी, परेशानियां थी लेकिन तब उन्होंने कभी अपना आपा नहीं खोया। अब वो दैनिक जागरण में सीनियर रिपोर्टर हैं,लेकिन अचानक ?

दरअसल,शांत जनरैल के चिदंबरम पर जूता फेंकने का दृश्य देखने के बाद अचानक सिखों की पीड़ा एक नए अर्थ में सामने आ खड़ी हो रही है। 1984 के दंगों में सिखों का जिस तरह कत्ल-ए-आम हुआ,उसके गुनाहगार आज भी खुलेआम घूम रहे हैं,और इसका दर्द विषबुझे तीर की तरह सिखों के मन में गढ़ा हुआ है।हालांकि,जनरैल की हरकत कतई सही नहीं कही जा सकती,लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अगर जनरैल को चिदंबरम को जूता मारना ही होता तो अगली कतार में बैठकर ऐसा आसानी से किया जा सकता था। उनका निशाना इतना खराब नहीं होगा!

लेकिन,अब जनरैल क्या करेंगे? क्या चुनाव लड़ेंगे? शिरोमणि अकाली दल ने जनरैल को दिल्ली में टिकट देने का ऐलान किया है(अगर जनरैल चाहें तो)। जनरैल सिखों के नये हीरो बन गए हैं। वेदना में जूतों के आसरे नायकों की उत्पत्ति नया फॉर्मूला है।

Thursday, April 2, 2009

चुनाव आयोग के लिए नया सिरदर्द है मोबाइल कैंपेन

ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अलावा जिस माध्यम पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रही हैं-वो है मोबाइल फोन। इसकी बड़ी वजह है। भारत में करीब 71 करोड़ मतदाता और करीब 38 करोड़ मोबाइल धारक हैं। और तकरीबन 36 करोड़ मोबाइल धारक वोटर हैं। दूसरी तरफ, इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या अभी महज आठ-नौ करोड़ के आसपास है। यानी मोबाइल के जरिए वोटरों को लुभाना आसान है। राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार अपने अपने संसाधनों के बीच मोबाइल का इस्तेमाल करने में जुट गए हैं। सूत्रों के मुताबिक हाईटेक प्रचार में अग्रणी भारतीय जनता पार्टी डू-नॉट-कॉल रजिस्टरी से बाहर करीब 25 करोड़ मोबाइल धारकों को चुनाव के दौरान एसएमएस भेजेगी। कांग्रेस बीजेपी से भले पीछे रहे,लेकिन करीब 15 से बीस करोड़ उपभोक्ताओं तक वो भी इस माध्यम के जरिए पहुंचने की कोशिश करेगी। बाकी राजनीतिक दलों के अलावा अपने अपने स्तर पर राजनेता भी अपने संसदीय क्षेत्र के वोटरों से मोबाइल फोन के जरिए संवाद स्थापित करेंगे। कर्नाटक, दिल्ली, मुंबई में ये कवायद शुरु हो चुकी है। वोटरों को अंग्रेजी के अलावा अब हिन्दी में भी एसएमएस भेजे जा रहे हैं। उम्मीदवारों की शिक्षा,पिछला रिकॉर्ड और विभिन्न मसलों पर उनके विचार भी एसएमएस के जरिए भेजे जाने की बात कही गई है।तमिलनाडु की एसएमएस समेत अन्य मोबाइल सेवा देने वाली कंपनी एयर टू वेब राजनीतिक वॉयस मैसेज भेजने की तैयारी में है,जिसके तहत आपके क्षेत्र का उम्मीदवार अपनी आवाज में वोट मांगेगा। टेलीकॉम ऑपरेटरों को उम्मीद है कि वो इन चुनावों के दौरान करीब चार अरब एसएमएस भेजेंगे और इससे उनकी करीब 50 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आय होगी। लोकल स्तर पर जो एसएमएस भेजे जाएंगे,उसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। जानकारों के मुताबिक एक उम्मीदवार 80 लाख से एक करोड़ एसएमएस जरुर भेजेगा क्योंकि इससे कम एसएमएस कैंपेन का कोई अर्थ नहीं है। इस कैंपेन पर 10 पैसे प्रति एसएमएस के हिसाब से उम्मीदवार आठ से दस लाख रुपए कम से कम खर्च करेंगे। दरअसल,इस नए मद में उम्मीदवार और पार्टियां कितना खर्च करेंगी,इसका कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। हालांकि,पंजाब के चुनाव आयोग ने साफ किया है कि चुनावी आचार संहिता के मुताबिक उम्मीदवारों को एसएमएस कैंपेन पर किए खर्च का ब्योरा देना होगा,और मतदान के दो दिन पहले एसएमएस कैंपेन बंद करना होगा। हालांकि, टेलीकॉम आपरेटर इस फरमान से खुश नहीं है, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या एसएमएस पर खर्च की गई राशि का पता लगाया जा सकता है? चुनाव आयोग पहली बार इस नयी समस्या से रुबरु है,और तमाम घुड़कियों के बावजूद उसके पास इस खर्च पर लगाम का कोई सीधा रास्ता नहीं है। ऐसे में,मोबाइल कैंपेन के परवान चढ़ने का इंतजार कीजिए,और अगर आप इस कैंपेन में दिलचस्पी नहीं रखते,तो फौरन अपना मोबाइल नंबर डू-नॉट-कॉल में रजिस्टर्ड कीजिए। ताकि,शायद राजनीतिक एसएमएस के तूफान में आप थोड़ा बच पाएं।

लेफ्ट तुझे क्या हुआ ?
एक ज़माने में कम्प्यूटर की भरसक विरोधी रही लेफ्ट पार्टियां साइबर कैंपेन के दौर में धुआंधार हाईटेक हो ली हैं। न जाने क्यों,लेफ्ट को लग रहा है कि युवाओं को लुभाने का इंटरनेट सबसे उपयोगी माध्यम साबित हो सकता है। यही वजह है कि पहले सीपीएम ने खास चुनावी मकसद से 18 मार्च को वेबसाइट लांच की-वोटडॉटसीपीआईएमडॉटओआरजी। लेकिन,लेफ्ट पार्टियों की अगुआ सीपीएम को लगता है कि हर राज्य के युवा मतदाताओं को लुभाने के लिए अलग वेबसाइट होनी चाहिए। इसीलिए,केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी सीपीएम,सीपीआई,आरएसपी,केरल कांग्रेस(जोसेफ),जनता दल(लेफ्ट) आदि के उम्मीदवारों के साइबर प्रचार के लिए दो अलग वेबसाइट लॉन्च की गई हैं। एक अंग्रेजी में-एलडीएफडॉटओआरजीडॉटइन और दूसरी मलयालम में वोटफॉरएलडीएफडॉटइन। इन दोनों साइटों पर कांग्रेस और बीजेपी पर जमकर निशाना साधा गया है। कांग्रेस की यूपीए सरकार की नाकामियों को गिनाया गया है,और अपने उम्मीदवारों की तस्वीरों समेत उनके बारे में जानकारी दी गई है। लेकिन,युवा मतदाता क्या सिर्फ सूचना लेने के लिए साइट पर आएंगे। दोनों साइटों पर
'इंटरेक्टिविटी' पर खास ध्यान नहीं दिया है। ऐसे में,ये दोनों साइटें युवा मतदाताओं को कैसे लुभाएगी,ये चुनाव बाद ही पता चलेगा।

ऑनलाइन बनाओ प्रधानमंत्री !
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को इराक में जूता क्या पड़ा,इस हादसे पर ऑनलाइन गेम बन गया। फिर,टेलीविजन चैनलों ने दो दिन बताया कि बुश को अभी तक कितने जूते पड़ चुके हैं। खैर,अब बात बुश की नहीं,मनमोहन और आडवाणी की है। वैसे,दोनों नेता खुशकिस्मत हैं कि वर्चुअल दुनिया में उनकी ठुकाई पिटाई नहीं हो रही। ओलंपिक गेम्स की थीम पर यहां नेताओं का कंपटीशन जारी है। ऑनलाइन गेम्स की कुछ साइटों पर इस तरह के राजनीतिक गेम्स शुरु हो चुके हैं,जबकि कुछ जल्द ही अपने गेम लॉन्च करने वाली हैं। पॉलिटिकल ऑनलाइन गेम बनाने वाली एक कंपनी के अधिकारी का कहना है कि ये गेम्स राजनीतिक जागरुकता फैलाने और थकान से राहत देने का काम करते है।खैर,अच्छी बात ये है कि नतीजों के लिए बेचैन लोग ऐसी साइटों पर जाकर गेम खेल सकते हैं,और अच्छा खेले तो अपना प्रधानमंत्री खुद चुन सकते हैं। ऐसी ही एक साइट है-ऑनलाइनरियलगेम्सडॉटकॉम। ये गेम्स फ्री हैं। हां,गेस्ट बनकर खेलने में ज्यादा मजा नहीं आता।

एक एसएमएस :
संटी (बंटी से) - इस बार चुनावों में संघ की ही चलेगी। इंटरनेट पर तो कोई दूसरी पार्टी उसके आसपास नहीं फटक सकती।
बंटी (संटी से)- ऐसा क्यों
? संघ तो चुनाव भी नहीं लड़ती।
संटी (बंटी से)- बेटा,नहीं लडती तो क्या। आरएसएस फीड तो सिर्फ उसी के पास है।

(दैनिक भास्कर का पोल टेक स्तंभ, 2 अप्रैल को प्रकाशित)